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राजपुरोहित संक्षिप्त वंश परिचय

       ****राजपुरोहित ****: संक्षिप्त वंश परिचय
प्रस्तावना:- पुरातनकाल में आर्यो ने कार्य के आधार पर चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र तथा चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास का निर्माण किया । इसके साथ ही संयुक्त परिवार प्रथा आरम्भ हो गई । ऋग्वेद के अनुसार राजनीति एवं जाति विस्तार संयुक्त परिवार की ही देन है। जाति विस्तार के कारण अलग-अलग राज्यों की स्थापना की आवश्यकता हुई एवं ‘‘राजा’’ पद का सृजन हुआ, साथ ही राज्य प्रशासन, सैनिक, धार्मिक नियम पथ प्रदर्शक व राजा के मार्गदर्शन एवं उस पर अंकुश रखने हेतु ‘‘राजपुरोहित’’ अथवा ‘‘राजगुरू पुरोहित’’ पद भी महाऋषियों में से सृजित किया गया जो कि अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली था क्योंकि राजपुरोहित ही सर्वसम्मति से राजा का चयन करता था।

वंश परिचय:- 1600 . .से. पूर्व अर्थात् 4500-5000 साल पूर्व

समस्त महाऋषियों, मुनियों में से सर्वश्रेष्ठ, पराक्रमी, उच्च प्रगाढ़ राजनीतिज्ञ, उच्च चरित्रवान, प्रतिज्ञ, निष्ठावान, त्यागी, दूरदर्शी, दयावान, प्रशासन, निपुण, प्रजापालक, सामाजिक व्यवस्थापक, अस्त्र- शस्त्र, युद्ध विद्या, रणकौशल, धनुर्विधा, वेदों व धार्मिक विद्याओं का ज्ञाता इत्यादि सर्व विषयों के विशिष्ट ज्ञाता को ही - ‘‘राजपुरोहित’’ अथवा ‘‘राजगुरू पुरोहित’’ चुना जाता था । योग्य एवं उचित परायण न होने पर राजपुरोहित को भी सर्वसम्मति एवं प्रजा की राय से पदच्युत कर दिया जाता था । उदाहरणतः रावी तट पर स्थित उतर पांचाल राज्य के राजा सुदास द्वारा ऋषिगण के विचार एवं आग्रह से विश्वामित्र को हटाकर उनके स्थान पर वशिष्ठ को यह पद सौंपा गया । इस प्रकार राजा एवं राजपुरोहित योग्य होने पर ही स्थाई होते थे अन्यथा उन पर ऋषिगण सभा द्वारा पुनः विचार किया जाता था ।
वैदिक काल में राजगुरू पुरोहित पद पर चुने गये ऋषिगण में से बृहस्पति (जो देवताओं के राजपुरोहित थे) एवं इसी वंश में ऋषि भारद्वाज, द्रोणाचार्य, वशिष्ठ, आत्रैय, विश्वामित्र, धौम्य, पीपलाद, गौतम, उद्धालिक, कश्यप, शांडिल्य, पाराशर, परशुराम, जन्मदाग्नि, कृपाचार्य, चाणक्य आदि मुख्य है। कालान्तर में इन्हीं ऋषि मुनियो के वंश विभिन्न गौत्रों, खांपो, जातियो एवं उप-जातियों के क्षत्रियों के राजपुरोहित होते गुए जिनमें सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, यदुवंशी - राठौड, परमार, सोलंकी, चौहान, गहलोत, गोयल, भाटी आदि मुख्य रूप से है। भाटियों के राजगुरू पुष्करणा ब्राह्मण है। आगे चलकर वंशानुगत रूप से परम्परानुसार राजपूत एवं राजपुरोहित होते गए तथा सुदृढ़ समाज एवं जातियां बन गई । वर्तमान में जो राजपुरोहित है, इन गोत्रो में से अलग-अलग जातियों व उप जातियों में विद्यमान है (जोधपुर, बीकानेर संभाग में सघन केन्द्रित) । इसी प्रकार क्षत्रिय भी अलग-अलग जातियों, उपजातियों एवं खापों में राजपूत नाम से विख्यात है।

वैदिक काल के अनुसार -
‘‘वय राष्ट्रं जाग्रयाम् (रा.गु.) पुरोहितः’’
.....(
यर्जुवैद - 1-23)

अर्थात् हम (राजगुरू पुरोहित) राष्ट्र को जगाने वाले है। लोगों में (प्रमुखतः क्षत्रियों में) राष्ट्रभावना, देशभक्ति एवं मातृभूमि हेतु बलिदान देने के लिये कर्तव्यपालन की भावना जागृत करते है। इसलिये राजगुरू अर्थात् राजा का (समस्त विषयों का विशेषज्ञ) शिक्षक है।
सर्वगुण सम्पन्न राजपुरोहित का शनैः शनैः राज्य का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हो जाना स्वाभाविक ही था। शुक्राचार्य ने कहा है -

पुरोधा प्रथम श्रेष्ठ, सर्वभ्यौ राजा राष्ट्र भक्त ।
आदु धर्म राज प्रौहितां, रणजग्य अरूं राजनित।।
अस्त्र शस्त्र जुध सिख्य, राजधर्म, राजप्रौहित।
धर्म्मज्ञः राजनीतिज्ञः षोड्स कर्मे धुरन्धरः
सर्व राष्ट्र हितोवक्ता सोच्यतै राजपुरोहितः।।
(शु.नि. 2/47 2/264)
मंत्रानुष्ठान संपन्न स्त्रिविद्या कर्म तत्परः ।
जितेन्द्रियों जितक्रोधो, लोभ मोह विजियतैः।।
षडंग वित्सांग, धनुर्वेद विचारार्थ धर्मवितः।
यत्कोप भीत्या राजर्षि धर्मनीति रतो भवते ।
नीति शास्त्रास्त्र, व्यूहादि कुशलस्तु (राज) पुरोहितः।
सेवाचार्यः पुरोधाय शायानुग्रहौ क्षमः।।
(शु.नि. 77, 78, 79)
धर्मज्ञ राजनीतिज्ञ शौडष कर्म्मधुरन्धर ।
सर्वराष्ट्र हितोवक्ता सोच्यते राजपुरोहितः।।
वेद वेदांग तत्वज्ञो जय होम परायणः ।
क्षमा शुभ वचोयुक्त एवं राजपुरोहितः।।

उपरोक्त श्लोको में राजपुरोहित के गुण, धर्म, योग्यता व कर्तव्य का भलीभांति वर्णन है । यथा धार्मिक विद्या, राजनीति, धनुर्विधा, राष्ट्रहित, समस्त धार्मिक उत्सव आयोजन, कर्तव्यपरायण, राज्यमंत्रणा एवं राजसंचालन, रणकौशल व्यूहरचना, प्रजापालन इत्यादि राज्य के समस्त कार्यो की जिम्मेवारी के साथ-साथ राज परिवार में सद्भावना, राजपुरोहित बनाए रखता था । यही कारण था कि तत्कालीन राज्य अच्छे चलते थे ।
एक राजपुरोहित कभी भी कर्म से ब्राह्मण नहीं रहा । वह मात्र वंश से ब्राह्मण है। यथा एक ब्राह्मण राजपुरोहित अवश्य रहा है। ब्राह्मण के लिये राज्य में कोई उत्तरदायित्व नहीं होता चाहे राज्याधिपति कोई हो उसे अपने ब्राह्मणत्व से सरोकार रहता था जबकि एक राजपुरोहित पर सम्पूर्ण राज्य की जिम्मेवारी रहती थी । उसे प्रतिक्षण राज्य, प्रजा, राजा व राज्य परिवार की जिम्मेवारी रहती थी । उसे प्रतिक्षण राज्य, प्रजा, राजा व राज्य परिवार के बारे में चिन्ति रहना पड़ता था। पुरातन वैदिक काल में राजपुरोहित राज्य का मुख्य पदाधिकारी व प्रमुख मंत्री होता था । न्याय करने में राजा के साथ उसकी भागीदारी होती थी। साधारण पुरोहित, राजपुरोहित से सर्वथा भिन्न रहा । राजपुरोहित, राज्यमंत्री, शिक्षक, उपदेशक, पथ-प्रदर्शक होता था । धार्मिक एवं राजनीतिक मामलो का प्रमुख होता था । वह राजा के साथ युद्ध भूमि में जाता था एवं युद्ध में राजा को उचित सलाह एंव धैर्य देता था । वह स्वयं योद्धा एवं गोपनीय व्यक्ति होता था । वह पथ प्रदर्शक, दार्शनिक एवं मित्र के रूप में राजा का सहयोग करता था । वह राज्य की राजनीति में भाग लेता था । इस प्रकार उस समय राजपुरोहित, प्रत्येक राज्य का सर्वश्रेष्ठ, प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था।

 अर्द्धपतन - कालान्तर में बाहरी हमलावरो के सतत आक्रमण एवं उनके द्वारा राष्ट्र शासन करने के कारण बाहरी प्रभाव, भारत की संस्कृति पर भी पड़ा । परिणाम स्वरूप राजपुरोहित का पतन होना आरम्भ हो गया । राजपुरोहित की सलाह से राजा का चयन, उसका मंत्रिमंडल एवं राज्य में सर्वोच्‍च स्थान समाप्त हो गया एवं राजनीति में भी उसका प्रभाव कम हो गया । पूर्व की भांति अब उसका सम्मान नहीं रहा । राज्यमंत्रणा में भी उसकी भागीदारी विशेष अवसरो के अलावा नहीं रह गई थी । हां, वह युद्धो में भाग अवश्य लेता रहा ।

पूर्ण पतन - भारत में अंग्रेजी के आगमन के पश्चात् राजपुरोहितो का पूर्णतया पतन हो गया । उनका महत्व सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों तक सीमित रह गया । यद्यपि राज्य सेवाओं, युद्धों आदि में उनका योगदान अवश्य रहा । भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग देने से प्रभावशाली राजपुरोहितो को अंग्रेजो ने पूर्णतया दबाया या नष्ट कर दिया जिनमें शिवराम राजगुरू, देवीसिंह रतलाम आदि प्रमुख है। 

 जीवन स्तर -पुरातन काल में राजपुरोहित सभी प्रकार से सर्वश्रेष्ठ था किन्तु मध्यकाल में राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ गया । यद्यपि उनके पास जागीरे थी जिससे जीवनयापन कर रहे थे । अंग्रेजो के आने के पश्चात् पतन हो गया । हां, कुछ शिक्षित अवश्य हुए किन्तु राज्य सता में उनका महत्व घट गया ।

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राजपुरोहित के दरबार में आने-जाने पर महाराजा दरबार एवं गुरू तरीको से अभिवादन मिलना होता था ।
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 राजपुरोहित के कार्य -
1. प्राचीन काल - प्राचीन काल में राजपुरोहित राजा का प्रतिनिधि होता था । राजा की अनुपस्थिति में राजकार्य राजपुरोहित द्वारा सम्पन्न होता था । वह राज्य का प्रमुख मंत्री होता था । राजा का चयन राजपुरोहित की सलाह से होता था । न्याय- दण्ड में वह राजा का निजी सलाहकार होता था । राजा को अस्त्र-शस्त्र, युद्धविद्या, राजनीति, राज्य प्रशासन आदि की सम्पूर्ण शिक्षा राजपुरोहित देता था । जैसे गुरू द्रोणाचार्य, वशिष्ठ । समय-समय पर राज्य के धार्मिक उत्सव व यज्ञ आदि का आयोजन करवाता था । इसके लिए दूसरे पण्डित वैद्य दानादि कर्मकाण्डी ब्राह्मण नियुक्त करता था अर्थात् धार्मिक मामलो का प्रमुख मंत्री था ।
राज्याभिषेक आयोजन कर राजा का चयन करवाकर राज्याभिषेक करवाता, स्वयं के रक्त से राजा का तिलक करता, कमर में तलवार, बांधता, राजा को उचित उपदेश देता एवं उसकी कमर में प्रहार करके कहा कि राजा भी दण्ड से मुक्त नहीं होता है।
वह राजा का पथ प्रदर्शक, दार्शनिक, शिक्षक, मित्र के रूप में राजा को कदम-कदम पर कार्यो में सहयोग करता था।
वह युद्धो में राजा के साथ बराबर भाग लेता व जीत के लिए उत्साह, प्रार्थना आदि से सेना व राजा को उत्साहित करता। वह स्वयं भी युद्ध करता । वह एक वीर योद्धा तथा समस्त विषयों को शिक्षक होता था । युद्ध के समय, सेना व शस्त्रादि तैयार करवाना शत्रु की गतिविधियों का ध्यान रखना इत्यादि राजपुरोहित के कार्य थे ।
राजा तथा प्रजा व मन्त्रिमंडल में सौहार्द्धपूर्ण कार्य करवाता था। राजपरिवार की सुरक्षा, राजकुमार व राजकुमारियों के विवाहादि तथा राज्य का कोई आदेश, अध्यादेश उसकी सहमति अथवा उसके द्वारा होता था । राजपुरोहित एक राष्ट्र निर्माता होता था।

 2. मध्यकाल - बाहरी हमलावरो के आक्रमण के परिणाम स्वरूप राजपुरोहित का पतन होना आरम्भ हो गया। अब राजा का चयन एवं राज्य के कार्य उसके पास से जाते रहे । राजनीति में भी वह पूर्व की भांति नहीं रहा । अन्य कार्य यथा सामाजिक, धार्मिक युद्धों में भाग लेना, रनवास की सुरक्षा व सुविधा का ध्यान रखना यथावत रहे । अस्त्र-शस्त्र सैन्य शिक्षा देना बन्द हो गया ।

 3. आधुनिक काल - भारत में अंग्रेजो के राज्य होने के पश्चात् राजपुरोहितो के कार्यो में एकदम बदलाव आया और वे सामाजिक व धार्मिक कार्यो तक सीमित रहने लगे । दरबार में राजपुरोहित का पद यथावत रहा । राजपुरोहित सामाजिक, धार्मिक कार्यो, त्यौहारो, उत्सवों में महाराजा की अनुपस्थिति में प्रतिनिधित्व करता । महाराजा के युद्ध में जाने तथा वापस लौटने, विवाह, त्यौहार, जन्मदिन आदि पर राजपुरोहित शुभाशीर्वाद देता । लौटने पर राजपुरोहित ही सर्वप्रथम आरती, तिलक कर राजा का स्वागत करता । राजा के बाहर से लम्बी यात्रा व अन्य कार्य शिकार आदि से लौटने पर भी सर्वप्रथम राजपुरोहित स्वागत करता (आरती तिलक नहीं)

 अभिवादन - राजपुरोहित का सामान्य अभिवादन ‘‘जय श्री रघुनाथ जी की’’ है कहीं-कहीं (मालानी आदि क्षेत्र में) - ‘‘मुजरो सा’’ अभिवादन भी प्रचलित है। राजपूतो से मिलने पर ‘‘जयश्री’’ करने का भी रिवाज है। याचको से ‘‘जय श्री रघुनाथ जी’’ व जय माताजी की’’ करने का रिवाज रहा है।
राज्य में कुरब के हिसाब से मिलान होता था और राजपुरोहित की हैसियत से भी मिलना होता था ।

 ठिकाणा व जागीरी स्थिति - पुरातन समय में तो राजपुरोहित राज्य का सर्वाेच्च एवं सर्वश्रेष्ठ अधिकारी होता था । मध्यकाल में युद्धो में भाग लेने, वीरगति पाने तथा उत्कृष्ठ एवं शौर्य पूर्ण कार्य कर मातृभूमि व स्वामिभक्ति निभाने वालो को अलग-अलग प्रकार की जागीर दी जाती थी । इसमें राजपूत, राजपुरोहित व चारण सामानान्तर वर्ग थे । प्रमुख ताजीमें निम्न थी -
1.
दोवड़ी ताजीम 2. एकवड़ी ताजीम 3. आडा शासण जागीर () इडाणी परदे वाले () बिना इडाणी परदे वाले 4. भोमिया डोलीदार () राजपूतो में भोमिया कहलाते () राजपुरोहितो एवं चारणो में डोलीदार कहलाते ।

ाजपूत साधारण जागीरदार, राजपुरोहित व चारण को सांसण (शुल्क माफ) जागदीरदार कहलाते थे । राजपुरोहितो के याचक - राव, भाट, दमामी, पंडे, ढोली आदि थे । इसके अलावा दूसरी कमीण कारू हींडागर कौम भी रही है।
रस्म रिवाज -

समस्त रस्मोरिवाज विवाह, गर्मी, तीज-त्यौहार, रहन-हन, पहनावा इत्यादि राजपूतो व चारणो के समान ही है।

 खान-पान - पूर्णतया शाकाहारी हैशराब का सेवन नहीं होता अवसरो इत्यादि पर अफीम सेवन का प्रचलन रहा है एवं अभी भी है। 
इस प्रकार राजपुरोहित एक अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण समाज रहा है । शब्दकोष के अनुसार ‘‘राजपुरोहित’’ शब्द का अर्थ इस प्रकार है - राजपुरोहित -पुरातन काल में क्षत्रिय राजाओं सम्राटो को अस्त्र-शस्त्र युद्ध विद्या, राजनीति, धर्मनीति एवं चारित्रिक राज्य,समाज की शिक्षा देने वाली पुरातन वीर जाति है।

राजपुरोहित - वर्तमान स्थिति -
बदलते युग   के थपेड़ो के बीच राजपुरोहित की गौरव गाथा मात्र ऐतिहासिक घटनाओं पर रह गई है। वर्तमान समय में राजपुरोहितो की स्थिति दयनीय नहीं तो अच्छी भी नहीं कही जा सकती । सामाजिक, राजनीति एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा समाज है। अल्प संख्यक है। राजकीय सेवा में भी अत्यन्त कम है। निजी व्यवसाय एवं खेती पर निर्भर रह गया है। तीनो सशस्त्र सेनाओं एवं सुरक्षाकर्मियों में अवसर प्राप्त हो जाते है। देशभक्त एवं वफादार समाज है।
 
उपसंहार - स्पष्ट है कि पुरातन एवं मध्यकाल में चारणो, राजपुरोहितो एवं क्षत्रियो (राजपूतो) का चोलीदामन का प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। सांस्कृति दृष्टि (रीति-रिवाजो) से ये कभी भिन्न नहीं हो सकते । एक दूसरे के अभिन्न अंग की तरह है। इतिहास साक्षी है - पुरातन समय में राजपुरोहितो ने क्षत्रियों को अस्त्र-शस्त्र, रणकौशल, राजनीति, धर्मनीति, राज्य संचालन, प्रजापालन, धर्म, चरित्र आदि की शिक्षा दी थी । जैसे द्रोणाचार्य ने पाण्डवो को, वशिष्ठ ने दशरथ के राजकुमारो को । चारणों ने समय-समय पर उन्हे कर्तव्यपालन हेतु उत्साहित किया । उन्होने काव्य में विड़द का धन्यवाद दिया एवं त्रुटियों पर राजाओं को मुंह पर सत्य सुनाकर पुनः मर्यादा एवं कर्तव्यपालन का बोध कराया । किन्तु समय के दबले करवटों के पश्चात् अंग्रेजी शासन के बाद ऐसा कुछ नहीं रहा एवं धीरे-धीरे मिटता गया
    
संदर्भ
1.
प्राचीन भारतीय इतिहास - डॉ. वी. एस. भार्गव (पृ. सं. 41, 42, 58, 66-73)
2.
प्राचीन भार - जी. पी. मेहता (पृ. सं. 26, 30, 31, 44, 46)
3.
भारतीय संस्कृति का विकास क्रम - एम. एल. माण्डोत (पृ. सं. 18-20)
4.
अर्थशास्त्र-कौटिल्य (चाणक्य) (पृ. सं. 1-9)
5.
प्राचीन कालीन भारत (पृ. सं. 71, 72, 77, 285, 259)
6.
प्राचीन भारत - वैदिक काल (पृ. सं. 78, 79)
7. राजपुरोहित जाति का इतिहास-भाग-12 - प्रहलाद सिंह (पृ. सं. 1-13)
8.
तिंवरी ठिकाणे के कागज तथा मुन्नालालजी का लेख